गुरुवार, 1 जुलाई 2010
कितने सपनो ने दम तोरा है?
शिशु सोते हुए मुस्कुराता है यानि हसीं सपने देख रहा होता है.हम बड़े होकर भी सपने देखते हैं.पर क्या मुस्कुरा पाते हैं ? दरअसल बड़े होकर बालसुलभ चीजों से हम बहूत दूर हो जाते हैं। वोह निश्छल हँसी,वोह सुखद अहसास जीवन मैं शायद ही कभी मिल पति है। ऐसा क्या हो जाता है? कहते है की ज्यों ज्यों हम बड़े होते है दुनिया भर की बुराइयाँ हमें घेरती जातीं हैं छल, प्रपंच,धोंखा,स्वार्थ आदि से घिर जातें है। नतीजा इश्वरिये गुणों को खो देते है। आत्मिक मुस्कान उसे कहते है जो दुसरे को मुस्कुराने पर मजबूर कर दे। एक युवा क्या सपना देखता है??अच्छी सी एक नौकरी ,एक सुंदर सा घर या एक कार? इससे अधिक तो शायेद और कुछ नहीं?स्टुडेंट अच्छी शिक्छा,सुखद भविष्य से ज्यादा और क्या सपना देखेगा? एक उम्रदराज आदमी बच्चों से सेवा के अलावा भी कूच चाहेगा क्या? बीमार आदमी भी यही चाहेगा। एक पत्नी पति से प्यार व् सम्मान के सिवा भी कुछ चाहेगी क्या?पर आज ये सपने पहुच से बहार होते जा रहे, क्यूँ? सिस्टम या समाज दोषी है इसके लिए? या हम और आप? जो अपने लिए तो न्याय चाहतें हैं और जब दूसरों की बारी आती है तो टांग अडाने से बज नहीं आते। फर्क बस इतना ही है। दोष सिस्टम का भी है जो गलत का पोषण करता आ रहा। ट्रेन में बैठने वाला दूसरो को जगह देना नहीं चाहता , तो जिंदगी में कोई क्या जगह देगा? जो दुसरो को रुलाता हो वह हँसाने की ख़ुशी से भी वाकिफ होगा क्या? तो करे क्या? बस आज से ही अपने को बदलना होगा, तभी शयेद दुनिया के गम मिट सकेंगे, सपने मुस्कुरा सकेंगे.
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