रविवार, 27 जून 2010

न हंस न कौवा , राजनीति बा बउवा

केंद्र सरकार महंगाई को लेकर आलोचना की शिकार , गृह मंत्री सदाशयता को लेकर । पर संचार मंत्रालय में हुए घोटाले के बावजूद जाँच बोल्डया मंत्री पर आंच नहीं , क्यूँ? बिहार में विकास की बात , सुशासन की बात पर विद्वान् व् सज्जन राजनीतिज्ञों यथा पूर्व विदेश राज्य मंत्री हरिकिशोर सिंह जैसे को राज्यसभा क्यूँ नहीं भेजा जाना चाहिए? अच्छे पदों पर अपने या जातीय लोगों को बिठाने की ढीठ राजनीतिक बेशर्मी क्या खत्म हो गयी? आखिर कुछ तो सबको चुभ ही रहा है, चाहे पक्ष-विपक्ष के राजनीतिज्ञ हो या बुद्धिजीवी या प्रशाषक वर्ग के लोग। तभी तो नीतीश सरकार के अच्छे कार्यों के बावजूद भीतर ही भीतर गहरी विरोध व् सत्ताहरण की राजनीति प्रवाह्यामन है । उत्तर प्रदेश में मायावती शासन की कठोरता सराह्निये है पर पार्टी के ही बेलागामों का क्या करें? अब मीडिया जो दर्पण कहलाती है वाही पैड न्यूज़ या पुर्चेजेबल आरोपों के बादल से धुंधली अब मार्गदर्शक कहाँ रही? नेताओं को तपाकर सोना बनाने वाली मीडिया उनकी आलोचना कर रही तब सबकुछ अच्छा अच्छा भला कैसे हो सकता है? न हंस न कौवा, राजनीति बा बौवा । क्या यही सार दिरिष्टिगत नहीं हो रहा?

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