मंगलवार, 29 जून 2010

दुनिया तो सुनेगी , सुनती रही है.

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जो कहा उसका आशय मै नहीं जानता पर जबभी कोई भारतीय बुद्धिजीवी बाहरी देशों में बोलता है तो पूरी दुनिया उसे सुनती है। भारतीय प्रधानमंत्री बुद्धिजीवी भी है और सहृदय नेता भी। अपने मद्धिम स्वरों में वे देश दुनिया को भारतीय नजरिये से वाकिफ करते रहते है। पूर्व प्रधानमंत्री व् ओजस्वी भाषण करने वाले श्री अटल बिहारी वाजपेई जब संयुक्त राष्ट्र संघ में पहली बार हिंदी में संबोधन कर रहे थे तो भी पूरी दुनिया में उन्हें सुना जा रहा था। अटल जी की भाषण कला अद्वितीय थी। श्रोता मंत्र मुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। और पीछे चलें तो युवा स्वामी विवेकानंद की तरुनाई की लालिमा उन्हें दिए गए शुन्य विषय की उदित सूर्य-लालिमा की भांति अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रहा था। स्वामी विवेकानंद एक उसी भाषण के कारण दुनिया में सुविख्यात हुए। भारतीय बोद्धिकता की तपोभूमि पर कितने उर्जावान , युवा-वृद्ध सुघर सम्भाशनकर्ता हुए गिनने की जरुरत नहीं। सुभाष चन्द्र बोस का सा जोश शायद श्रीमान बराक ओबामा में न हो पर वे एक आज़ाद ख्याल अमेरिकी युवा राष्ट्रपति है , संभावनाओं से लबालब। उनके सामने वरिष्टता और शालीनता की मूर्ति श्री सिंह निश्चय ही प्रसंसनिये है। आर्थिक मंदी के दौर में मनमोहन जी की विशेसग्य छवि भी शायद अनुकार्निये है। शायद इसी लिए पूरी दुनिया उनको और भारतीय अर्थव्यवस्था को मंत्रमुग्ध देखती है।

रविवार, 27 जून 2010

न हंस न कौवा , राजनीति बा बउवा

केंद्र सरकार महंगाई को लेकर आलोचना की शिकार , गृह मंत्री सदाशयता को लेकर । पर संचार मंत्रालय में हुए घोटाले के बावजूद जाँच बोल्डया मंत्री पर आंच नहीं , क्यूँ? बिहार में विकास की बात , सुशासन की बात पर विद्वान् व् सज्जन राजनीतिज्ञों यथा पूर्व विदेश राज्य मंत्री हरिकिशोर सिंह जैसे को राज्यसभा क्यूँ नहीं भेजा जाना चाहिए? अच्छे पदों पर अपने या जातीय लोगों को बिठाने की ढीठ राजनीतिक बेशर्मी क्या खत्म हो गयी? आखिर कुछ तो सबको चुभ ही रहा है, चाहे पक्ष-विपक्ष के राजनीतिज्ञ हो या बुद्धिजीवी या प्रशाषक वर्ग के लोग। तभी तो नीतीश सरकार के अच्छे कार्यों के बावजूद भीतर ही भीतर गहरी विरोध व् सत्ताहरण की राजनीति प्रवाह्यामन है । उत्तर प्रदेश में मायावती शासन की कठोरता सराह्निये है पर पार्टी के ही बेलागामों का क्या करें? अब मीडिया जो दर्पण कहलाती है वाही पैड न्यूज़ या पुर्चेजेबल आरोपों के बादल से धुंधली अब मार्गदर्शक कहाँ रही? नेताओं को तपाकर सोना बनाने वाली मीडिया उनकी आलोचना कर रही तब सबकुछ अच्छा अच्छा भला कैसे हो सकता है? न हंस न कौवा, राजनीति बा बौवा । क्या यही सार दिरिष्टिगत नहीं हो रहा?